मेरा प्रिय साहित्यकार : प्रेमचन्द पर निबंध | Essay on My Favorite Writer : Munshi Premchand

 प्रमुख विचार - बिन्दु 

(1) प्रस्तावना


(2) जन्म तथा परिचय 


(3) शिक्षा एवं अध्ययन क्षेत्र, 


(4) प्रेमचन्द और साहित्यिक जीवन, 


प्रस्तावना - 


मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय एवं आदर्श साहित्यकार हैं। वे हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभ थे जिन्होंने हिन्दी जगत् को कहानियाँ एवं उपन्यासों की अनुपम सौगात प्रस्तुत की। अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं। केवल साहित्यकार ही नहीं समाज सुधारक भी कहे जा सकते हैं क्योंकि अपनी रचनाओं में उन्होंने भारतीय ग्राम्य जीवन के शोषण, निर्धनता, जातीय दुर्भावना, विषाद आदि का जो यथार्थ चित्रण किया है उसे कोई विरला ही कर सकता है। भारत के दर्द और संवेदना को उन्होंने भली-भाँति अनुभव किया।




जन्म तथा परिचय - मुंशी प्रेमचन्द जी का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में लमही नामक ग्राम में सन् 1880 ई० को एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री अजायब राय तथा माता आनंदी देवी थी। प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था। परंतु बाद में साहित्य जगत में वे 'मुंशी प्रेमचन्द' के रूप में प्रख्यात हुए।

शिक्षा एवं अध्ययन क्षेत्र - मुंशी प्रेमचन्द जी ने प्रारंभ से ही उर्दू का ज्ञान अर्जित किया। 1898 ई० में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे सरकारी नौकरी करने लगे। नौकरी के साथ ही उन्होंने अपनी इंटर की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के प्रभाव से उन्होंने सरकारी नौकरी को तिलांजलि दे दी तथा बस्ती जिले में अध्यापन कार्य करने लगे। इसी समय उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।


मुंशी प्रेमचन्द ने आरंभ में उर्दू में अपनी रचनाएँ लिखीं जिसमें सफलता भी मिली परंतु भारतीय जनमानस के रुझान को देखकर उन्होंने हिन्दी में साहित्य कार्य की शुरुआत की। परिवार में बहुत गरीबी थी, बावजूद इसके उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से कभी मुख न मोड़ा। वे अपनी अधिकतर कमाई साहित्य को समर्पित कर दिया करते थे। निरंतर कार्य की अधिकता एवं खराब स्वास्थ्य के कारण वे अधिक समय तक अध्यापन कार्य जारी न रख सके।


1921 ई० में उन्होंने साहित्य जगत् में प्रवेश किया और लखनऊ आकर 'माधुरी' नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके पश्चात् काशी से उन्होंने स्वयं 'हंस' तथा 'जागरण' नामक पत्रिका का संचालन प्रारंभ किया परंतु इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। घर की आर्थिक विपन्नता की स्थिति में समय के लिए उन्होंने मुंबई में फिल्म कथा लेखन का कार्य भी किया।


अपने जीवनकाल में उन्होंने पत्रिका के संचालन व संपादन के अतिरिक्त अनेक कहानियाँ व उपन्यास लिखे जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं सजीव लगते हैं। जितने उस काल में थे। मात्र 56 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य जगत् का यह विलक्षण सितारा चिरकाल के लिए निद्रा-निमग्न हो गया।


प्रेमचन्द और साहित्यिक जीवन- मुंशी प्रेमचन्द जी ने अपने अल्प साहित्यिक जीवन में लगभग 200 से अधिक कहानियाँ लिखीं जिनका संग्रह आठ भागों में 'मानसरोवर' के नाम से प्रकाशित है। कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने चौदह उपन्यास लिखे जिनमें 'गोदान' उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसके अतिरिक्त रंगभूमि, सेवासदन, गबन, प्रेमाश्रम, निर्मला, कायाकल्प, प्रतिज्ञा आदि उनके प्रचलित उपन्यास हैं।


ये सभी उपन्यास लेखन की दृष्टि से इतने सजीव एवं सशक्त हैं कि लोग मुंशी जी को 'उपन्यास संम्राट्' की उपाधि से सम्मानित करते हैं। कहानी और उपन्यासों के अतिरिक्त नाटक विद्या में भी प्रेमचन्द जी को महारत हासिल थी। 'चंद्रवर' इनका सुप्रसिद्ध नाटक है। उन्होंने अनेक लोकप्रिय निबंध, जीवन चरित्र तथा बाल साहित्य की रचनाएँ भी की है। उर्दू भाषा का सशक्त ज्ञान होने के कारण उन्होंने अपनी प्रारंभिक रचनाएँ उर्दू भाषा में लिखी परंतु बाद में उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारंभ कर दिया। उनकी रचनाओं में उर्दू भाषा का प्रयोग सहजता व रोचकता लाता है।


मुंशी प्रेमचन्द जी की उत्कृष्ट रचनाओं के लिए यदि उन्हें 'उपन्यास सम्राट' के स्थान पर साहित्य सम्राट की उपाधि दी जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुंशी प्रेमचन्द के पात्रों के वर्ग प्रतिनिधित्व को सहजता से देखा जा सकता है। वे समाज का चित्रण इतने उत्कृष्ट ढंग से करते थे कि संपूर्ण यथार्थ सहजता से उभरकर मस्तिष्क पटल पर चित्रित होने लगता था।